आखिर कब ?
बेटीयाँ जितनी अच्छी होती है, क्यों बहुएँ उतनी ही बुरी हो जाती है
क्यूँ समाज की औरतें ये मन चाही प्रथा बनाती है
कैसे बदल सकती है वो देह वो आत्मा, कैसे बदल सकते है वो संस्कार
प्रत्यक्ष है इसका वो परमात्मा, फिर भी बुराइयाँ ही मिलती है अपार
इतनी बुराईओँ से जूझते हुए भी, वो अपने पूरे जीवन को जी जाती है
इतना कष्ट सह कर भी, वो हर रिश्ते को निभाती है
बदले मे फिर भी वो, ‘सबसे बुरी’ बहू ही कही जाती है
कब इस समाज में बहुएँ भी सम्मान पाएगीं
कब हर घर में बहुएँ नही, बेटीयाँ घर लायी जायेगी
आखिर कब एक बहू को भी उसके हिस्से का सम्मान मिलेगा
आखिर कब उस सम्मान को पा एक बहू का भी चेहरा खिलेगा
आखिर कब ?
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